शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

अशोक अंचल जी के साथ बिताये कुछ पल....



क्सर अंचल जी मेरे स्टूडियो में आया करते थे और घंटों हम दोनों बैठ कर फ़िल्म, नाटक, म्यूजिक के बारे में योजनायें बनाया करते थे। मुझे काम करते देख वे अक्सर कहा करते थे कि " अंकन जी, आप तो एक पूरा पैकेज हैं , स्क्रीनप्ले लिखने से लेकर एडिटिंग और फाइनल प्रोडक्शन तक का सारा काम आप ख़ुद ही करते हैं और वह भी एक ही छत के नीचे ...." दरअसल अंचल जी रांची जैसे छोटे शहर में फ़िल्म बनाने की मुश्किलों से पूरी तरह वाकिफ थे कि यहाँ एक छोटी सी भी फ़िल्म बनाने में कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। इस दिशा में उनकी दृष्टि काफी दूर तक जाती थी। शायद इसलिए ही उन्होंने मुझे पूरा पैकेज कहा था।


१९९५ में अंचल जी की कुछ कविताओं के संकलन को उन्ही के स्वर में मैंने रिकॉर्ड किया था। उनके अचानक दुनियावी रंगमंच को छोड़ कर चले जाने से आहत मैं उन्ही के बारे में सोंच रहा था कि उनके उसी कविता संकलन की याद आ गयी और मैं उसका मास्टर कैसेट खोजने में लग गया। थोड़े ही प्रयास के बाद मुझे सफलता मिल गयी। उनकी कविताओं को सुनते सुनते मैं अंचल जी की यादों में खो गया.....

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

मेरे मन की बात...

कलाकार आज इतना उपेक्षित हो जाएगा मैंने कभी सोचा भी न था। कुछ दूर पीछे देखने पर छऊ सम्राट केदार साहू , प्रसिद्ध रंगकर्मी चितरंजन प्रसाद , सुरेन्द्र शर्मा और अशोक अंचल, प्रसिद्ध नाटककार सिद्धनाथ कुमार आदि के नाम जेहन में उभरते हैं और साथ ही मन में एक टीस उठती है कि क्या झारखण्ड की धरती कलाकारों से इतनी तेजी से वीरान होती रहेगी ? इन कलाकारों को याद करने वाले भी क्या सिर्फ़ इन्ही के घर वाले होंगे ? क्या हमारा या समाज का कोई दायित्व नही बनता है उन्हें याद रखने के लिए ? फ़िर मेरा मन पूछता है झारखण्ड की सरकार से..... कि क्या सरकार के पास कोई ऐसी नीति नही जो उन कलाकारों की तमाम कृतियों को सहेज कर रख सके ? मन बड़ा बेचैन होता है मेरा यह देखकर कि यहाँ तो सारे तंत्र-मंत्र, केवल और केवल दूरदृष्टि विहीन नेताओं के इर्द गिर्द घूमते हुए सिर्फ़ उन्हें ही महिमामंडित करते हैं। अब तो सभी को ऐसे नेताओं से घृणा होने लगी है। प्रदेश कि सारी व्यवस्था ध्वस्त होती नज़र आती है बावजूद इसके आम जनता इन्ही नेताओं से उम्मीद लगाये बैठी है। सुबह से शाम तक आम आदमी मशीन की तरह खटता रहता है और उसके पसीने की बूंद की कीमत वसूलते नज़र आते हैं यही नेता।

मेरा तो मन करता है कि कोई ऐसा संग्रहालय बनाया जाय जिसमे यहाँ के कलाकारों कि कृतियों और प्रस्तुतियों को ऑडियो - विजुअल तकनीक अथवा डॉक्युमेंटरी फिल्मों के माध्यम से संरक्षित किया जा सके ताकि आने वाली पीढियों के लिए एक उदहारण प्रस्तुत किया जा सके और यह काम बिना सरकारी मदद के ख़ुद से ही कलाकारों को करना होगा। मैं इस तरफ़ कदम बढ़ा चुका हूँ और मुझे कलाकारों का साथ चाहिए।


मेरे पिता मेरे गुरु...

दिनांक २३ फ़रवरी २००९ को मेरे पिता श्री जगदीश नारायण "पवन जी" का देहावसान हो गया। वे ९३ वर्ष के थे। वे परनाती -परपोतों वाला भरा पूरा परिवार छोड़ गए।

मेरे पिता मेरे गुरु भी थे। उनसे मैंने चित्रकारी और लेखन की कला सीखी थी। आकाशवाणी की स्थापना काल से ही वे वहां के मान्यताप्राप्त नाट्य लेखक थे साथ ही १९३६ से लेकर १९५० तक रांची में रंग आन्दोलन के सजग प्रहरी भी बने रहे। चर्चित साहित्यकार राधाकृष्ण (जिनके नाम से राधाकृष्ण पुरस्कार दिया जाता है) के परम मित्रों में थे मेरे पिता जी जगदीश बाबु। पिता जी का राधा बाबु के साथ खूब उठना बैठना और लेखन पर विमर्श करना होता रहता था।

स्वतंत्रता आन्दोलन में भी मेरे पिता जी शामिल हुआ करते थे। जब कभी वे मूड में रहते थे तो स्वतंत्रता आन्दोलन की बातें बताया करते थे और उसमे अपनी भागीदारी का जिक्र करके एक ऐसा चित्र खींच दिया करते थे जैसे सारी घटनाएँ सामने घट रही हों । हम सुनने वाले भाई बहन भी उर्जा से भर जाया करते थे।

कहीं न कहीं उन्ही जज्बातों के कारण ही उनकी तरफ़ मैं भी खिंचा चला जाता था। उनकी सहजता और सरलता किसी से छिपी नही थी। वे हमेशा कहा करते थे की " सादा जीवन उच्च विचार" और अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि" यही था उनका जीवन सार" ।