गुरुवार, 27 मार्च 2014
शनिवार, 15 मार्च 2014
मित्रों आज रांची विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग में सभी शिक्षकों ने एक दूसरे को अबीर लगा कर होली की पावन शुभकामनायें दीं। होली की मस्ती में सब को टोपी पहनाई गयी। मौके की एक तस्वीर शेयर कर रहा हूँ। आप सभी मित्रों को भी होली की ढेर सारी शुभकामनायें …
आप सब भी सुरक्षित होली खेलें। संभव हो तो सूखी और स्नेह की होली खेलें।
आप सब भी सुरक्षित होली खेलें। संभव हो तो सूखी और स्नेह की होली खेलें।
सोमवार, 10 मार्च 2014
India requires Social & Religious Harmony...
दर्शनशास्त्र एक ऐसा विषय है जो सब धर्म को एक सूत्र में बांधता है। टेम्पल ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग के झारखण्ड एवं बिहार चैप्टर के सेक्रेटरी जो पटना हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार भी रह चुके हैं श्री एम. टी. खान ने रांची विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र विभाग में व्याख्यान देते हुए बहुत ही शालीनता से कहा कि आज सभी धर्मो को एक मंच पर लाकर सभी समुदायों के बीच सामाजिक एकता को स्थापित करने की जरूरत है तब ही हमारा देश तरक्की करेगा। आज सोशल हारमनी की नितांत जरुरत है।
हम भूमंडलीकरण के दौर में तीन तत्वों से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं और वो है एल.पी.जी. (LPG) यानि (Liberalization, Privatization, Globalization) ये तीनो पूरी दुनिया को मार्केट में बदल कर रख दिया है। इन्ही तीनो की वजह से आदमी, आदमी हो कर रह गया है इंसान नहीं बन पा रहा है। हमारे सोशल हारमनी को यह डिस्टर्ब कर दिया है। आज सभी धर्म के लोग अपने अपने तरीकों से ईश्वर की पूजा प्रार्थना करते हैं। ईश्वर इनके दिलों की बात क्यों नहीं पूरी करता है क्योंकि वह भी जनता है कि इन सब के दिलों में हारमनी नहीं है। इसलिए आज सबसे ज्यादा सामाजिक और धार्मिक हारमनी कि ही जरूरत है तब ही भारत उन्नत होगा और यहाँ सामाजिक सदभाव बन पायेगा।
सोमवार, 23 अप्रैल 2012
मुझे कल रांची स्थित शहीद स्थल पर जाने का अवसर मिला था. यहाँ शहीद सप्ताह मनाया जा रहा है. जिन शहीदों ने इस देश को स्वतंत्रता दिलाने में दिन रात एक कर दी थी जिनके लहू से ही हमें आज़ादी मिली उन्ही शहीदों को नमन करने का दिन था कल. सारे अतिथि आ चुके थे, जिनमे लोकायुक्त श्री अमरेश्वर सहाय, पूर्व राज्यसभा सदस्य अहलुवालिया जी सहित कई नामचीन हस्तियाँ अपने निर्धारित समय पर पहुँच गयी थी. केवल निर्धारित समय शाम छ: बजे आना था राज्य के मुख्य मंत्री माननीय अर्जुन मुंडा जी को.......शहीदों के सम्मान का मामला था. सबकी निगाहे बार बार उधर जा रही थीं जिधर से मुख्य मंत्री जी को आना था. मंत्री जी के सभी सिपहसलार पहले ही पहुँच चुके थे. आखिर इंतज़ार समाप्त हुई और लगभग साढ़े सात बजे अर्जुन मुंडा जी पधारे. तब जा कर शहीदों का सम्मान कार्यक्रम आरम्भ हुआ.....बेचारे शहीदों को क्या पता था कि उनकी क़ुरबानी से मिले आज़ादी का इतना बेजा इस्तेमाल होगा......
रविवार, 5 सितंबर 2010
ज्ञान वृछेर फल
कोलकाता के ज्ञानमंच पर देखा एक सुन्दर नाटक "ज्ञान वृछेर फल " निर्देशक मेघनाथ भट्टाचार्य ने इसे खुबसूरत तरीके से मंच पर प्रस्तुत किया। एक जमींदार अहिभूषण बागची के परिवार और उनके मित्रों की गोष्ठी के साथ समाज के नीचले तबके के लोगों की भावनाओं और चिंतन धाराओं की एक सुन्दर बानगी देखने का मौका मिला कोलकाता के इस सायक नाट्य संस्थान के माध्यम से। मैं साधुवाद देता हूँ कोलकाता के रंगकर्मियों को जो दिन रात लग कर इस तरह के नाटक करते हैं।
इस नाटक में एक दुकान के कर्मचारी के रूप में बहुत ही संछिप्त अभिनय में श्यामल साहा ने जो छाप मुझ पर छोड़ी उसे मैं नहीं भूला शेष सभी कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया। प्रकाश और संगीत के समायोजन ने नाटक की गति और प्रभाव दोनों को एक ऊंचाई प्रदान की।
लियो तोल्स्तोय की मूल कृति "फ्रूट्स ऑफ़ कल्चर " पर आधारित चन्दन सेन का यह एक गुदगुदाने वाला नाटक था । इसके सेट डिजाइनर को भी मैं बधाई दिए बिना नहीं रह सकता। समाज के लिए आज इसी तरह के नाटकों की जरूरत है। इसे रांची जैसे शहर में भी होना चाहिए।
सुशील अंकन
इस नाटक में एक दुकान के कर्मचारी के रूप में बहुत ही संछिप्त अभिनय में श्यामल साहा ने जो छाप मुझ पर छोड़ी उसे मैं नहीं भूला शेष सभी कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया। प्रकाश और संगीत के समायोजन ने नाटक की गति और प्रभाव दोनों को एक ऊंचाई प्रदान की।
लियो तोल्स्तोय की मूल कृति "फ्रूट्स ऑफ़ कल्चर " पर आधारित चन्दन सेन का यह एक गुदगुदाने वाला नाटक था । इसके सेट डिजाइनर को भी मैं बधाई दिए बिना नहीं रह सकता। समाज के लिए आज इसी तरह के नाटकों की जरूरत है। इसे रांची जैसे शहर में भी होना चाहिए।
सुशील अंकन
रविवार, 25 अक्तूबर 2009
छठ के बहाने.....
आज २००९ का छठ संपन्न हुआ। मेरे घर में भी छठ हुआ था। रांची के सभी छठ घाट पिछले कई दिनों से स्थानीय अखबारों की सुर्खियों में थे। लिहाज़ा मैंने यह तय किया कि शहर से थोड़ी दूर किसी घाट को पूजन के लिए चुना जाय। मैंने वही किया। शहर से लगभग पाँच किलोमीटर दूर दक्षिण में पंडरा क्षेत्र में एक छोटी नदी को अर्घ्यदान के लिए चुना।
पूरे विध विधान और पवित्रता से हमलोग छठ घाट के लिए रवाना हुए। छोटी छोटी ढेर सारी बंप वाली गलियों को पार करते हुए नदी के समीप पहुंचे। पथरीली उबड़ खाबड़ साफ़ गन्दी पगडंडियो से होते हुए अंततः नदी के तट पर पहुँचे।
किंतु यह क्या ? वहां पहुँच कर मन खिन्न हो गया पानी देख कर। बहती नदी का पानी और इतना गन्दा....? कोई दूसरा उपचार नही था इसलिए उसी पानी में पत्नी को स्नान और ध्यान कर छठ का अर्घ्यदान करना पड़ा। सूर्य ध्यान के समय पानी के भीतर पता नही कौन कौन से जीव जंतु पत्नी के पैरों में रेंग और काट रहे थे कि उनका ध्यान सूर्यदेव कि जगह , पैरों में ही केंद्रित था। प्रायः सभी व्रतधारियों के साथ यही स्थिति थी।
उसी घाट पर प्रकाश कि व्यवस्था करने वाली एक संस्था बड़े बड़े स्पीकर लगा कर अपनी व्यवस्था की तारीफ़ करते और सहयोग राशि के लिए बार बार आग्रह करते नही थक रहे थे।
जिस डर से शहरी घाटों से भागा था, वही, उस घाट पर भी भोगना ही पड़ा। मुझे ऐसा लगा सबसे उत्तम यही होता कि अपने घर कि छत या आंगन में ही छोटा कुंड बना कर सूर्योपासना का त्यौहार करता। ऐसा करने से सभी प्रकार की शुद्धता का पालन किया जा सकता था साथ ही परेशानियों से भी बचा जा सकता था। सरकार या स्वयं सेवी संगठनो को समय पर छठ घाट की सफाई नही कराने के लिए कोसने से भी बच जाता।
भविष्य में छठ करने वाले सभी व्रतधारियों से मेरा विनम्र निवेदन होगा कि अगर सचमुच सूर्य और प्रकाश की पूजा अर्चना ध्यान पूर्वक करना हो तो अपने अपने घरों में ही करें क्योंकि आने वाले दिनों में भी, न तो सरकार को कर्तव्यबोध होगा और न तो सरकार संपोषित स्वयं सेवी संगठनों को ही। आप स्वयं को ही बदल लें। इससे आप आस्थापूर्वक पूजन तो कर ही पाएंगे।
रविवार, 5 जुलाई 2009
"कहाँ हो परशुराम" से टूटा सांस्कृतिक सन्नाटा....
एक लंबे अर्से के बाद रांची में हस्ताक्षर के द्वारा "कहाँ हो परशुराम" नाटक की प्रस्तुति के साथ ही सांस्कृतिक सन्नाटा टूटता सा दिखाई दिया। अशोक पागल द्वारा लिखित और निर्देशित नाटक "कहाँ हो परशुराम " का मंचन दिनांक ०४ जुलाई को रांची विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय में किया गया। नाटक के कलाकारों में शिशिर पंडित, सुशील अंकन, विश्वनाथ प्रसाद, रीना सहाय, अशोक पागल, ओमप्रकाश , कीर्तिशंकर वर्मा और मृदुला ने अभिनय किया। मंच एवं रूप सज्जा के निर्देशक थे विश्वनाथ प्रसाद, ध्वनि प्रभाव था सुशील अंकन का और प्रकाश व्यवस्था थी ऋषि प्रकाश की। सहयोग था नरेश प्रसाद, उषा साहु , रविरंजन कुमार और संतोष का।
इस नाटक के साक्षी बने रांची नगर के चर्चित साहित्यकार, कलाकार एवं प्रशासकीय पदाधिकारी गण। जिनमें मुख्य थे अशोक प्रियदर्शी, विद्याभूषण, बिमला चरण शर्मा, निवास चंद्र ठाकुर, केदार नाथ पाण्डेय, चंद्र मोहन खन्ना, महफूज आलम, बिनोद कुमार, भरत अग्रवाल, स्वामी दिव्यानंद, राजेंद्र कुमार टांटिया, सुनीता कुमारी गुप्ता, जयप्रकाश खरे आदि....
इस नाटक की प्रस्तुति ने दर्शकों को नाटक देखने का एक अच्छा अवसर देते हुए यह भी सोचने को विवश किया कि नगर की सांस्कृतिक विरासत को कैसे जीवित और अविराम रखा जाय। भविष्य में और अच्छे नाटक देखने की उम्मीद के साथ पूरे हस्ताक्षर परिवार को दर्शकों ने ढेर सारी बधाईयाँ दीं। सचमुच सांस्कृतिक सन्नाटा टूटा.....
- सुशील अंकन -
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